क्योंकि तुम मजदूर हो ! मीलों पैदल चलने की सोच कर शहर से निकलते वक़्त तुम यहीं सोचते हो ना की इस शहर से हमारा गांव अच्छा है। सुकून मिलेगा वहां भले मकान कच्चा है। सैकड़ों किलोमीटर साईकिल चलाकर कई दफ उतरी चेन को चढ़ाकर पीठ पर सामान का बोझ लादकर ये सफ़र अंतिम है ऐसा मानकर जब तुम चल पड़ते हो अपने गांव के रास्ते पर तो देखते हो उन सड़को को जिन्हे तुमने खुद अपने हाथो से बनाया है वो रेल की पटरियां जिन्हे तुमने खुद जमाया है। वो रेलवे स्टेशन जहां तुम कभी कुली थे उस कपड़ा मिल में मजदूर मामूली थे चिलमिलाती धूप में भी तुम छांव ढूंढ़ते हो उन पेड़ो की, जो कभी तुमने लगाए थे, तब भी तुम मजदूर ही थे शहर की वो बड़ी बड़ी इमारतें जिसे तुमने अपने खून पसीने से बनाया है उनकी बिसात नहीं की तुम्हें इक छत नसीब करा सके। वो सेठ जिसके यहां तुम ताउम्र मजदूरी करते रहे वो तुम्हे रहने के लिए इक छत ना दे सके वो ठेकेदार तुम्हे इंसानियत की दो रोटी ना सके। अब तुम्हे हर हाल में अपने घर लौटना है। क्योंकि तुम मजबुर हो क्योंकि तुम मजदूर हो। रात अंधेरी हो जाने पर तुम तलाशते नहीं हो अपने सोने का ठिकाना सो जाते हो तुम सड़क किनारे या किसी रेल की पटरी पर फिर रोंद देती है तुम्हें कोई कार या मालगाड़ी फिर होती है राजनीति गरमाती है सियासत सिंकती है रोटियां पटरी पर पड़े तुम्हारे कटे फटे शवों पर। फ़ाड़ दिया जाता है बस इक मुआवजे का चेक क्योंकि तुम मज़दूर हो। - कुमार हरीश ब्लॉग: www.thepoetrylove.com [ ● मेरी रचनाये स्वरचित एवं पूरी तरह मौलिक हैं। आपके सुझाव एवं आशीर्वाद के लिए आभार ● ] (Image: google) Attachments area
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