निराशाओं के झुंड में जब आशा का कोई बादल नजर आता,
तब तक मनुष्य के हाथ से सारा अवसर निकल जाता I
वह बाट जोहता तब तक जब तक कोई किरण नजर न आती,
बस बाट जोहते रहने में ही देर बहुत हो जाती I
पश्चात् अवसर निकलने के अब उसके पास क्या शेष बच पाता,
कल तक था जो मुस्कराता आज वही मुरझाता I
नयनों में जिसके कल तक सारी दुनिया नजर आती,
आज उसी के नयनों से अश्रुधारा गिर जाती I
उसके जीवन ने एक सोच कैसे में सफल ही पाऊंगा,
इस रंगहीन दुनिया में मै कैसे अपने रंग भर पाऊंगा I
यही सोच अब उसे हर पल परेशान किया करती है
दिन तो दिन रात में भी सोने न दिया करती है I
मझधार ने जैसे नैया डोले खाया करती है,
सोच उसकी नज़रों में ऐसे द्रश्य पेश करती है I
उसके मुख पे अब तो केवल प्रश्नचिन्ह दिखते है,
उसके मुख के प्रश्नचिन्ह कई प्रश्न खड़े कर देते है I
- - कुमार हरीश
[ ● मेरी रचनाये स्वरचित एवं पूरी तरह मौलिक हैं। आपके सुझाव एवं आशीर्वाद के लिए आभार ● ]
(Image: google)
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